Thursday, August 6, 2015

 प्रेम

तुझसे मुझ तक आती हवा,
मलयानिल न थी!
ना तुम महाकाश थे,
ना मैं युग युगों से पूजित पृथा!
तुम न रांझे हुए ,
न मैं तुम्हारी हीर!
दूर थे
इन बंधनों से
हम मुक्त थे, उन्मुक्त थे, हर भाव से!
इसीलिए तुम,  तुम रहे
मैं, बस मैं!

Saturday, May 9, 2015

राइ ते पर्वत भइ


पहली बार जब श्रेष्ठा ने अपने पति को मंडप में देखा तो अपने भावी जीवन की तमाम आशकाओं से वह निश्चिंत हो गयी। लेकिन शादी के बाद जब वह ससुराल आई तब धीरे-धीरे नवब्याहता की आखों पर पङे गुलाबी परदे उतरकर  जीवन की बदरंग दिवारें दिखाने लगे।उसे अपने सामने खङी मुश्किलों का अंदाज होने लगा था। एक तरफ सागर की मां को नौकरी करती बहू की साध थी तो दूसरी तरफ सागर को उसका नौकरी करना सख्त नापसंद था।दो पाटों के बीच फसी श्रेष्ठा को कोई उपाय ही नहीं दिखता था।
पर परिस्थितियों पर भला किसका वश है।समझौतों की सीढियां चढती श्रेष्ठा भला इस एक चोटे से कंकङ को क्या समझती! खुशियों से भरे दो महीने ऐसे बीते जैसे दो क्षण हों।
इसी दौरान श्रेष्ठा एक बार मायके गई। कुछ दिनों के बाद सास का फोन आया।उन्होंने उससे शादी के एलबम के आने के बारे मे पूछा।
उसने बताया- अभी फोटो तैयार नहीं हुआ है।कुछ दिनों के बाद आयेगा।
-अच्छा! तो ठीक है।तब तक तुम भी मत आना यहां।(और हंसने की आवाज आई)
श्रेष्ठा को अजीब लगा।
-अच्छा मां! बन जायेगा तब ले आऊंगी।
-हां लाना तब ही आना भी।
शाम को सागर से बात हुई तो उसने वापस आने के लिये कहा।  तब श्रेष्ठा ने हंसते हुए कहा- कैसे आऊंगी मां तो आने ही नहीं देंगी।वजह पूछे जाने पर उसने मां की बात कह दी।
सागर उस समय आफिस में था। उसने वही  से मां से बात की और कहा-क्या तुम चाहती नहीं कि तुम्हारी बहू यहां रहे?
यह बात सुनकर उन्होंने कहा-तुझसे किसने कहा?
-तुम्हारी बहू ने।
-तभी तो! (और रिसीवर रख दिया)
इस घटना के बाद सबके बीच दूरियां बनने लगीं।सास-बहू के धारावाहिक ने यूं भी दिमाग को कुंद कर ही दिया था।
भावनायें भी नाटकीय हो गईं।इस तरह से धीरे-धीरे घर बिखरने लगा।
इसी बिखराव को समेटने श्रेष्ठा वापस ससुराल आ गयी। पर अनजाने ही वह अपनी सास के आंख की किरकिरी बन चुकी थी।
तभी एक दिन अपने कमरे में डाअर को साफ करते हुए उसे लाल पोटली में सरसों के दाने मिले।उसने यह बात अपने पति को बताई।पति ने अंधविश्वास कह कर बात उङा दी।वह निश्चिंत हो गई।फिर उसने बात-चीत के दौरान यूं ही अपनी सास को भी यह बात बता दी तो उन्होंने भी परेशान नहीं होने के लिए कहा। फिर बात आई –गई हो गई।
कुछ ही दिनों के बाद श्रेष्ठा को तेज बुखार आया।पति जब आफिस से वापस आया तो उसे बिस्तर पर देखकर गुस्सा हो गया।जब उसने बुखार आने की बात कही।तो सागर ने कहा – तुम्हे ही बुखार क्यूं हुआ?
बङा अजीब लगा उसे सुनकर।भला इसमें उसकी क्या गलती है!
रात में सास ने कहा-सोचा था कि घर मे बहू आयेगी तब आराम होगा,पर क्या जानती थी की मेरी किस्मत ही खराब है! आये दिन नखरे ही देखो! सारा iदन घर मे ही पङी होती हैं। कोई काम भी नहीं है।सारे लोग काम कर-कर के परेशान हैं और यह आराम कर के बिमार हो रही है।
श्रेष्ठा कमरे मे बैठी थी।सागर की मां उसे हमेशा नौकरी करने के लिए ताने मारती थी। आज सागर भी घर में ही था इसलिये उन दोनों से अपनी मुश्किल कहने वह बाहर आ गयी और कहा-मां ,नौकरी तो मैं शादी के पहले करती ही थी्। आज नहीं कर रही क्योंकि सागर को मेरा नौकरी करना पसंद नहीं। आपही बताइये कि मैं क्या करु ?नौकरी नहीं करती तो आप नाराज होती हैं और करु तो सागर।
बस क्या था-ठीक ही कहते हैं कि बात छिलो तो बात ही निकलती है। श्रेष्ठा की बात समझना तो दूर कोई सुनने को भी तैयार नहीं था।दिल जब पत्थर बन जाये तो वहां भावनायें पानी की तरह बह जाती हैं।
श्रेष्ठा की सास अपनी बात खुलते देख कर और चिढ गई और कहने लगीं-ये क्या कहेगी! खुद फंसने लगी तो अब मुझपर ही आरोप लगा रही है।बहू समझकर आज तक चुप थी पर अब बहू कैसी?इसने तो मुझे मारने केलिए टोना किया है।देखा नहीं सरसों के दाने!

श्रेष्ठा सुनकर हतप्रभ रह गयी।
जैसे-तैसे रात तो बीत गई।पर सुबह से ही हाइ-ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की पेशेंट उसकी सास ने दवा खाना छोङ दिया। और सबसे कहा-मैं अब दवा तब ही खाऊंगी जब श्रेष्ठा मुझ पर टोना करने की बात कबूल करेगी।वरना क्या पता की दवा भी जहर बन जाये।
श्रेष्ठा के घरवालों को जब यह बात मालुम हुइ तो वो उसके ससुराल आये पर उन्हें सबने बाहर निकाल दिया।इधर उसकी सास की तबियत जब ज्यादा खराब हो गई तो उसने झूठमूठ ही यह बात कबूल कर ली। आखिर सागर तो इसे अंधविश्वास ही समझता था! उसने जो झूठ बोला उससे सास की जान तो बच गयी पर श्रेष्ठा की शामत आ गयी।उसके सपने भी उसकी तरह ही शक और अविश्वास की वजह से चूर-चूर हो गये।
अंततः उसे वापस मायके आना पङा भागकर! सबने मिलकर उसे मारने की साजिश की थी जिसे उसने सुन लिया था। अंधविश्वास ने उसके विश्वास का गला घोंट दिया था।
वापस आना और नये सिरे से जिंदगी शुरु करना कतइ आसान नहीं था।सागर से उसने जब भी बात करने की कोशिश की तो उसने अभी व्यस्त हूं,बाद में बात करुगा कहकर कभी बात ही नहीं की।उसने कभी श्रेष्ठा से झगङा नहीं किया था,उस पर आरोप नहीं लगाये थे…पर उसकी रक्षा करने की कोशिश भी तो नहीं की…
आखिर कब तक उसे समझाकर अपना आशिंया बचाने की कोशिश में इंतजार करती रहती – श्रेष्ठा!
चार महिने की शादी के बाद ही तलाक हो गया।वह कभी समझ ही नहीं पायी के कैसे राई का पर्वत बन गया और उसके नीचे उसकी खुशियां दब गईं।

अर्चना कश्यप

Tuesday, May 5, 2015

हम हैं क्या ?



पुलिस हिरासत में मरे लोगों की सूची रटते ,
बलात्कार पीडित महिलाओं की गिनती गिनते
नरसंहार में , दंगे में , बम विस्फोट में
मारे गये लोगों  की सूची पढते!

रेल से कट कर हुई मौत की खबर बांचते,
फांसी से , जलकर, कूदकर, डूबकर
मरते लोगों की लिस्ट देखते- हम

आखिर हम हैं क्या!

क्या कहा इंसान?
नहीं!
 इंसान तो कदापि नहीं! 

नदी में डूबती सोहणी

नदी में डूबती सोहणी
किसी को याद नहीं रहती,

याद रहती है - उसकी कहानी

भ्रामक है कहानियां
झूठ गढती हैं।

कोई नहीं बताता
आखिर आदर्श
बेवकूफ ही क्यों होते हैं!

 क्यों उन्हें कच्चे और पके  घडे.में अंतर नहीं सूझता ?
ये  आदर्श
जब  मूर्खता की चरमसीमा पर ही अडे हैं
तो
खतरा है ऐसे  आदर्शों से
खतरा है ऐसी सोच से!

कहानियां बनाती
झूठ जीती
 मूर्खता से !

Wednesday, April 15, 2015

क्या क्रांति सिर्फ इसीलिए रूकी रहेगी
 कि हमने गलत प्रतीकों को चुना!

सुना था जब जमीन पकती है
 तब आती है क्रांति!
 कैसे पकती है ये जमीन?

माथे पर पडने वाली परेशानी के सलवटों से,
पेट में घटते अनाज से,
ईमान पर चिपके खटमलों से!

इनसे ही तो पकती थी जमीन !

फिर आज क्या हुआ?
तो क्या क्रांति संकेतों के इंतजार में,
कसिी अंधेरी खोह में दुबकी रहेगी ?

न जानना कहां तक अच्छा है !
 ज्ञान कहां तक वर है
कहां से अभिशाप है!

सीमा निर्धारण के रास्ते
मरूभूमि की रेत से
असंख्य अनगनित!

Tuesday, December 23, 2014


जीने के बहाने
बहानोँ से चलती है जिँदगी।
पहली अभिव्यक्तिसे चला सिलसिला-
अंतिम साँस पर ही रूकता है।
बहुत ही वेराइटीज है-
छोटे, बडे,गंभीर, चुटकीले,
हर रंग ,हर रस में  सराबोर।
   बस जरुरत है इनोवेटीव रहने की।
   कंटेपररी रहने की।
बहुत से बहाने-
आउट आँफ डेट हो जाते हैं ।
पर कुछ तो कौए की जीभ खाये आते हैं ।
अच्छी,बुरी,आडी,तिरछी
सीधी,टेढी हर दृष्टि के बहाने।
  बहाने ही बहाने।
घर देर से आने के बहाने,
काँलेज न जाने के बहाने,
थियेटर में पापा के मिलने पर किये बहाने,
भाई की फ़ीस खो जाने के बहाने।
   बडे ही मजेदार हैं बहाने।
रिश्तों को न मानने के बहाने,
घूस खाने के बहाने,
लंबी क्यू में जबरदस्ती आगे लगने के बहाने,
बस में टिकट न लेने के बहाने,
काम न करने के बहाने।
  बडे ही अनोखे हैं बहाने।
  इन बहानों में उलझा इंसान,
जीवन को जीने के बहाने-
जब ढूंढ नहीं पाता।
कोई भी इनोवेशन तब काम नहीं आता।