Thursday, August 12, 2010




आमंत्रण
वंशी फ़िर बजी है।
कैसे रुक पाएँगी गोपियाँ, राधा का मन कैसे स्थिर रह पाएगा?
वंशी है मोहन का वशीकरण, आज अंग संग घ्राण प्राण खींच लाएगा।

मानिनी!
रुको नहीं, ताल पर पुकारता महामिलन।
प्रिय का आमत्रण तो अनसुना भी हो सके
रक्त के अणु अणु में बज रहा प्राणों का आमंत्रण।

नारी समर्पण है, श्रद्धा है, सृष्टि है, वृष्टि है प्रेम की
वह आखिर क्यों डरे? वही तो रचयिता समाज की।
कौन बताए उसे, मोहन की वंशी सुन चुप रहना पाप है,
कौन जाए सोचने, वर है – अभिशाप है!