Friday, July 9, 2010

कविता



जीने के बहाने

बहानोँ से चलती है जिँदगी।
पहली अभिव्यक्तिसे चला सिलसिला-
अंतिम साँस पर ही रूकता है।
बहुत ही वेराइटीज है-
छोटे, बडे,गंभीर, चुटकीले,
हर रंग ,हर रस में सराबोर।
बस जरुरत है इनोवेटीव रहने की।
कंटेपररी रहने की।
बहुत से बहाने-
आउट आँफ डेट हो जाते हैं ।
पर कुछ तो कौए की जीभ खाये आते हैं ।
अच्छी,बुरी,आडी,तिरछी
सीधी,टेढी हर दृष्टि के बहाने।
बहाने ही बहाने।
घर देर से आने के बहाने,
काँलेज न जाने के बहाने,
थियेटर में पापा के मिलने पर किये बहाने,
भाई की फ़ीस खो जाने के बहाने।
बडे ही मजेदार हैं बहाने।
रिश्तों को न मानने के बहाने,
घूस खाने के बहाने,
लंबी क्यू में जबरदस्ती आगे लगने के बहाने,
बस में टिकट न लेने के बहाने,
काम न करने के बहाने।
बडे ही अनोखे हैं बहाने।
इन बहानों में उलझा इंसान,
जीवन को जीने के बहाने-
जब ढूंढ नहीं पाता।
कोई भी इनोवेशन तब काम नहीं आता।