Friday, August 6, 2010

दरअसल मेरी व्यक्तिगत राय में स्त्री बंधनों में तो है, पर यह सारे बंधन स्वयं के द्वारा स्थापित हैं क्योंकि बंधनमुक्ति की कामना और बंधन मुक्ति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। व्यक्तिगत जीवन में तो एक क्षण से भी कम।

अगर हम इतिहास को देखें तो सीता भी उसी खूँटे से बंधी थी, पर सीता ने इस बंधन को अस्वीकार किया और समय ने उसे स्वीकार भी किया। स्वयं को बंधनमुक्त रखना स्त्री और पुरूष होने पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह जोखिम के प्रति स्वीकार्यता पर निर्भर है। बंधन में सुरक्षा है, स्त्री ने इस तथ्य को आदिम काल से समझा है। जिसने भी आजादी की कीमत दी है, आजादी उसे ही मिली है। सीता ने भी कीमत चुकाई।

आप एक तरफ़ स्वतंत्रता भी चाहें और सुरक्षा भी, तो यह हास्यास्पद हो जाता है। स्त्री मुक्ति का अर्थ जो आज लगाया जा रहा है या फ़िर जिन प्रतीकों को पितृसता के विरोध में जलाया जा रहा है, वह वास्तविकता से बहुत दूर है। प्रतीक संचार में तो बड़ी भूमिका निभाते हैं पर वह कोई वास्तविक समाधान उपस्थित नहीं करते। स्त्री मुक्ति का अर्थ भावनारहित हो जाना मेरी समझ में नहीं आता, क्योंकि भावनाएं ही हमें पशुओं से अलग मस्तिष्क की मेधा से सहारा पाकर एक मानवता की भूमि सी दे पाई हैं। अगर वह नहीं होंगी तो मानव मूल्यों का नाश ही लगता है। स्त्री हो या पुरूष, इसकी रक्षा तो करनी ही होगी। और फ़िर भावनाएँ, जैसा सब जानते हैं कि असुरक्षित होती और करती हैं। यह कीमत तो मानव होने की है, जिसे हर हाल में देना ही है।

दूसरी बात यह है कि अगर स्त्री को चूल्हे, और घर से जोड़ कर देखा जाए तो पुरूष को भी दफ़्तर और घर की जरूरतें पूरा करते देखा जाएगा। जो सामने होगा वह एकरस जीवन से पैदा हुई ऊब होगी जो नए जोखिम से बचकर चलने से आती है। लेकिन मैं तब भी इस बात का समर्थन करती हूँ कि स्त्रियों को घर से बाहर की दुनिया अवश्य देखनी चाहिए। यह दुनिया ज्यादा मायनों में स्त्रियों की रची हुई है, वे स्रष्टा हैं इस समाज की, नैतिकता की और नियम कानूनों की भी। जैसा कि हम जानते हैं कि नई पीढ़ी के मन पर पहला प्रभाव माँ का होता है और स्त्री को यह देखना चाहिए कि घर, पद, प्रतिष्ठा इन सब कामनाओं को स्वार्थों में तब्दील कर देने से समाज में शोषण का जो आह्वान हुआ है उसके परिणामस्वरूप बनी दुनिया स्वार्थपूर्ण युद्ध और शोषण के आतंक में जमी हुई है। इसके दर्शन से ही शायद वह अपने प्रियजनों को स्वार्थमुक्त करने की प्रेरणा पा सके।

संसार का हर अत्याचार और शोषण किसी न किसी रूप में किसी स्त्री के द्वारा ही स्वीकृत है। शारीरिक शोषण के सदर्भ में बात थोड़ी अलग है। यह प्राकृतिक न्याय की श्रेणी में आता है कि सबल निर्बल का शोषण स्वार्थ पूर्ति के लिए करते ही हैं। यह स्त्री पुरूष दोनों की विफ़लता है कि हम मनुष्यता को पशुता से वांछित दूरी पर परिभाषित नहीं कर सके हैं। कमजोर होते ही चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, हमारे समाज में पैठी पाशविकता के कारण शोषण का शिकार हो जाता है। जब विवेकानंद ने कहा था कि भय सबसे बड़ा पाप है तो मेरी नजर में उनका तात्पर्य यही रहा होगा।

लाचारी किसी जेंडर विशेष की पहचान नहीं है। इस कविता के स्त्री की लाचारी उसके स्त्री होने के कारण कम, नकारात्मक रूप में निश्चिंतता और लोभ या सकारात्मक रूप में भावना और समर्पण के कारण अधिक है। यह स्त्री होने या न होने से नहीं, कमजोर होने या न होने की बात है।

क्या स्त्री मुक्ति कौस्मोपालिटन या प्लेब्वाय के कवर पेज़ पूरी करेंगे? हालाँकि इससे अंतर नहीं पड़ता है। यह एक जेस्चर के रूप में महत्त्वपूर्ण हो सकता है पर समाधान के रूप में इसका कोई औचित्य नहीं है। आज शोषण की पहचान तो ठीक ही हो रही है, पर कारण अभी छुपे हुए है।

सपने


पहले सपने बुनती थी मैं।
पर जब तुम झूठ गढ़ने लगे,-
तो मैं कहानियाँ बनाने लगी।
हर झूठ को छिपाने के लिए-
पाँच कहानियाँ ।
कहानियाँ बनाते-बनाते जब देखा,
तो तुम ही नहीं रहे।
मेरे पास बचा था-बस कहानियों का ढेर ।