Tuesday, December 23, 2014


जीने के बहाने
बहानोँ से चलती है जिँदगी।
पहली अभिव्यक्तिसे चला सिलसिला-
अंतिम साँस पर ही रूकता है।
बहुत ही वेराइटीज है-
छोटे, बडे,गंभीर, चुटकीले,
हर रंग ,हर रस में  सराबोर।
   बस जरुरत है इनोवेटीव रहने की।
   कंटेपररी रहने की।
बहुत से बहाने-
आउट आँफ डेट हो जाते हैं ।
पर कुछ तो कौए की जीभ खाये आते हैं ।
अच्छी,बुरी,आडी,तिरछी
सीधी,टेढी हर दृष्टि के बहाने।
  बहाने ही बहाने।
घर देर से आने के बहाने,
काँलेज न जाने के बहाने,
थियेटर में पापा के मिलने पर किये बहाने,
भाई की फ़ीस खो जाने के बहाने।
   बडे ही मजेदार हैं बहाने।
रिश्तों को न मानने के बहाने,
घूस खाने के बहाने,
लंबी क्यू में जबरदस्ती आगे लगने के बहाने,
बस में टिकट न लेने के बहाने,
काम न करने के बहाने।
  बडे ही अनोखे हैं बहाने।
  इन बहानों में उलझा इंसान,
जीवन को जीने के बहाने-
जब ढूंढ नहीं पाता।
कोई भी इनोवेशन तब काम नहीं आता।



हर साल बर्बाद किये देशों में इजाफा होता गया !
और हम सब चुपचाप बैठे रहे |
इंतजार था हमें-दानव का!
के इससे ही दोस्ती कर लें-बच जायेंगे|
पर क्या,
इंसान को भट्टी में झोंकते दानव,
इनका मतलब समझते हैं ?
अजीब लगता है-
जब सोचती हूं-कैसे लोग होंगे वहां |
क्या हमारे जैसे ही-बेबस
जो अपने सर हजारों खून का बोझ ढोने पर मजबूर हैं|
या पूरी नस्ल ही,
उस घास की तरह है-जिसने यदुवंश का नाश किया!
और ये-
पूरी इंसानियत को खत्म करेंगे|
देखती हूं-के हम सब डरे हैं|
दानव कहता है-मैं तुम्हारा नेता हूं|
कोइ साथ नहीं देता,
पर विरोध का स्वर भी  नहीं है|
क्या पूरी इंसानियत इस तरह-

इस जलील, कायरता पूणं
मौत मरेगी !

अग्निशिखा
मैं जड़ हूँ –

सौंदर्य ,गंध से हीन।
मैं तुम्हारी इच्छा पुष्प नहीं ,
ना जूही की कली।
मैं तुम्हारे ह्र्दय पर थिरकती मुस्कान हूँ ।

मैं तुम्हारे रस-स्वप्न की-
स्वर्ण मूर्ति का आलिंगन नही ।
मैं तुम्हारी रगों में –बहता ज्वाल हूँ ।

मैं तुम्हारी तृषा को पूर्ण करती राह नही –
खींच ले जाये जो अगम को –मैं वो चित्कार हूँ ।
मैं तुम्हारे गात को शीतल करती पय-धार नहीं ,
श्रुति मात्र से जल उठो- मैं वो भ्रष्ट राग हूँ ।

मैं जड़ हूँ –
सौंदर्य ,गंध से हीन।
मैं तुम्हारी इच्छा पुष्प नहीं ,
ना जूही की कली।

            मैं तुम्हारे विश्वाश पर चोट करती-क्रांति उदगार हूँ ।


राख में दबे शोलों की सरगोशी,

ज्वालामुखी से निकली लपटों से भी तेज़ है।

मैं उनमें कंडे डाल कर-

सेंकती हूँ ह्रदय और आत्मा।

सेंकती हूँ रोटियाँ –जली-जली।

दबी बातें,


सिर्फ विस्फोट ही करती हैं ।

चिनगारी चाहे लाख दबी हो,

किसी चूल्हे की आग नहीं बनती।


ब्लैकहोल

हब भी सोचती हूँ ,
कि कुछ लिखूँ-तुम्हारे बारे में ,
तो शब्द ही नहीं मिलते।
भला इतनी विरक्ति-
क्या शब्द थाम पायेंगे !
तब भी जब बैठती हूँ –
तो याद ही नहीं रहती।
क्या लिखूँ?
दिल,दिमाग सब पर शून्य!
तुम्हारे लिए कैसी कंगाली है?
न शब्द
न भावना
न याद।
                       

                         यहाँ तक कि शिकायत भी नहीं 
हम क्या कहें !

तुम तो हमें सिरे से ही नकार जाते हो।
एक बार नहीं ,हजार बार –
हम तुम्हारी कठोर दहलीज रक्तस्नात कर जाते हैं ।

क्या तुम जानते हो?
हम से तुम्हारीदहलीज तक के रास्ते-

तुम्हारे चाबुक से उधडी,
हमारी लाशों से भरे पडे हैं ।
और जब तुम-
हम अर्धमृत लाशों पर,
अपने रथ पे सवार –
सैर को निकलते हो,
तुम्हारे रथ के पहिए
हमारे खून से ही चमकते हैं ।
और तुम कहते हो,


कि हम अब भी कुछ कहें ।
बस कहें ! बस कहें ही।

लाशों को ढोती पीढ़ी नाराज है

लाशों को ढोती पीढ़ी नाराज है

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                                           ज़ुदा रास्ते

मेरी बातें तुम्हारी जैसी नहीं ,

ना सरल,न सीधी,
ये सपाट हैं ।
ना इसमें समुद्र की गहराई है,
ना पर्वतों सी
ऊँचाई ।
यह समुद्र पर फैली-
तेल की धार है।
मुझे विष-अमृत का,
घोल बनाना नहीं आता।
मैं उसे वैसे ही पेश करती हूँ –अल्हदा।
नहीं जानती शब्दों के जाल में –
अर्थ को घुसाते,छिपाते- तुमने की ईमानदारी

या
 अप्रिय सत्य का ज़खीरा पटकते-मैंने।
मुझे बस इतना पता है-चाहना एक ही है।
बस तुम जरा हाथ को घूमाकर नाक पकड्ते हो-
मैं सीधे गर्दन।