घुमन्तू। हम सब - लगाते हुए बोलियाँ, पसार कर बैठते हैं शब्द; बहुत कुछ है जो अंधेरों में होता है, पर कुछ है जो होता है, सरे आम- बीच बाज़ार।
Thursday, August 6, 2015
प्रेम
तुझसे मुझ तक आती हवा, मलयानिल न थी! ना तुम महाकाश थे, ना मैं युग युगों से पूजित पृथा! तुम न रांझे हुए , न मैं तुम्हारी हीर! दूर थे इन बंधनों से हम मुक्त थे, उन्मुक्त थे, हर भाव से! इसीलिए तुम, तुम रहे मैं, बस मैं!