Wednesday, July 28, 2010

मेरी दुनिया


मैंने वहीं बनाई थी अपनी दुनिया।
छिपते-छिपाते
बचते-बचाते,
रोज़-रोज़ जाती थी।
हवा से कभी सिहरती,
तो कभी कलेजा थाम बैठ जाती थी।
पर जाती ज़रूर थी।
वहीं-
जहाँ न जाने,मैंने कितनी मु्सीबतों से
बचाये थे-अनमोल बेशकीमती खजाने।
मैं चूहे जैसी-
बिल में रखे अनाज के ढेर के बल पर-
बाहर फुदकती रहती।
कुतरती रहती-जडें।
(इनकी जकडन में फँसी मेरी साँसें,
मुझे कभी रास नहीं आई)
ढूढती थी रास्ता हर तरफ़
हर तरफ़ थीं जडें-
अनगिनत-पीपल, वटवृक्ष की।
बंद कर दिये गये थे-
हर मोड़,नुक्कड़,गली,चौराहे,
जहाँ से गुजर सकती थीं –
मेरी कल्पनायें।
पर ये रोके कब रूकी हैं !
फूट पड़ीं गंगा सी,
असंख्य जलधार में बँटती,
ढूंढ ली है राह—वहाँ की,
जहाँ ,
मैंने छुपा रखे हैं-
हँसते हुये वो क्षण सभी।

राख में दबे शोलों की सरगोशी,

ज्वालामुखी से निकले लपटों से भी तेज़ है।

मैं उनमें कंडे डाल कर-

सेंकती हूँ ह्रदय और आत्मा।

सेंकती हूँ रोटियाँ –जली-जली।

दबी बातें,

सिर्फ विस्फोट ही करती हैं ।

चिनगारी चाहे लाख दबी हो,

किसी चूल्हे की आग नहीं बनती।

Saturday, July 17, 2010

Today I read a book.....it doesn't matter which book it was....just wanna say it was like to know myself..
To see another world which we can't see,feel or perceive by our much used five senses...it was quite different feeling...The pain ,the suffering we go through is just an illusion or better say a lie or a luxury...we suffer coz we want to acquire, to posses the things which don't belong to us...Sometimes what we don't get is really not worthy of our attention let alone the idea of owning it or to control it...

Sunday, July 11, 2010

ब्लैकहोल






ब्लैकहोल

जब भी सोचती हूँ ,

कि कुछ लिखूँ-तुम्हारे बारे में ,

तो शब्द ही नहीं मिलते।

भला इतनी विरक्ति-

क्या शब्द थाम पायेंगे !

तब भी जब बैठती हूँ –

तो याद ही नहीं रहती।

क्या लिखूँ?

दिल,दिमाग सब पर शून्य!

तुम्हारे लिए कैसी कंगाली है?

न शब्द

न भावना

न याद

यहाँ तक कि शिकायत भी नहीं !

हम क्या कहें !






हम क्या कहें !
तुम तो हमें सिरे से ही नकार जाते हो।
एक बार नहीं ,हजार बार –
हम तुम्हारी कठोर दहलीज रक्तस्नात कर जाते हैं ।
क्या तुम जानते हो?
हम से तुम्हारि दहलीज तक के रास्ते-
तुम्हारे चाबुक से उधडी,
हमारी लाशों से भरे पडे हैं ।
और जब तुम-
हम अर्धमृत लाशों पर,
अपने रथ पे सवार –
सैर को निकलते हो,
तुम्हारे रथ के पहिए
हमारे खून से ही चमकते हैं ।
और तुम कहते हो,
कि हम अब भी कुछ कहें ।बस कहें ! बस कहें ही!
ज़ुदा रास्ते

मेरी बातें तुम्हारी जैसी नहीं ,
ना सरल,न सीधी,
ये सपाट हैं ।
ना इसमें समुद्र की गहराई है,
ना पर्वतों सी
ऊँचाई ।
यह समुद्र पर फैली-
तेल की धार है।
मुझे विष-अमृत का,
घोल बनाना नहीं आता।
मैं उसे वैसे ही पेश करती हूँ –अल्हदा।
नहीं जानती शब्दों के जाल में –
अर्थ को घुसाते,छिपाते- तुमने की ईमानदारी
या अप्रिय सत्य का ज़खीरा पटकते-मैंने।
मुझे बस इतना पता है-चाहना एक ही है।
बस तुम जरा हाथ को घूमाकर नाक पकड्ते हो-
मैं सीधे गर्दन।


अग्निशिखा

मैं जड़ हूँ –

सौंदर्य ,गंध से हीन।

मैं तुम्हारी इच्छा पुष्प नहीं ,

ना जूही की कली।

मैं तुम्हारे ह्र्दय पर थिरकती मुस्कान हूँ ।

मैं तुम्हारे रस-स्वप्न की-

स्वर्ण मूर्ति का आलिंगन नही ।

मैं तुम्हारी रगों में –बहता ज्वाल हूँ ।

मैं तुम्हारी तृषा को पूर्ण करती राह नही –

खींच ले जाये जो अगम को –मैं वो चित्कार हूँ ।

मैं तुम्हारे गात को शीतल करती पय-धार नहीं ,

श्रुति मात्र से जल उठो- मैं वो भ्रष्ट राग हूँ ।

मैं जड़ हूँ –

सौंदर्य ,गंध से हीन।

मैं तुम्हारी इच्छा पुष्प नहीं ,

ना जूही की कली।

मैं तुम्हारे विश्वाश पर चोट करती-क्रांति उदगार हूँ ।

Friday, July 9, 2010

कविता



जीने के बहाने

बहानोँ से चलती है जिँदगी।
पहली अभिव्यक्तिसे चला सिलसिला-
अंतिम साँस पर ही रूकता है।
बहुत ही वेराइटीज है-
छोटे, बडे,गंभीर, चुटकीले,
हर रंग ,हर रस में सराबोर।
बस जरुरत है इनोवेटीव रहने की।
कंटेपररी रहने की।
बहुत से बहाने-
आउट आँफ डेट हो जाते हैं ।
पर कुछ तो कौए की जीभ खाये आते हैं ।
अच्छी,बुरी,आडी,तिरछी
सीधी,टेढी हर दृष्टि के बहाने।
बहाने ही बहाने।
घर देर से आने के बहाने,
काँलेज न जाने के बहाने,
थियेटर में पापा के मिलने पर किये बहाने,
भाई की फ़ीस खो जाने के बहाने।
बडे ही मजेदार हैं बहाने।
रिश्तों को न मानने के बहाने,
घूस खाने के बहाने,
लंबी क्यू में जबरदस्ती आगे लगने के बहाने,
बस में टिकट न लेने के बहाने,
काम न करने के बहाने।
बडे ही अनोखे हैं बहाने।
इन बहानों में उलझा इंसान,
जीवन को जीने के बहाने-
जब ढूंढ नहीं पाता।
कोई भी इनोवेशन तब काम नहीं आता।

Tuesday, July 6, 2010

नजर बाज़ार पर, पैर कतार में

कतार में तो आना ही है सबको। एक न एक दिन राम भी रहे होंगे कतार में। चीनी के लिए कतारें तो मधुमेह ने बंद कर दीं, पर पानी के लिए कतार कुछ नई बात है। क्या किसी ने बोतलबन्द पानी के लिए कतार लगी देखी है? हाँ स्लीपर कूपे में यह हाल कभी होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने चौथी कट आफ़ भी जारी कर दी। किसी को कट आफ़ का मतलब पता है? नज़रें सब बाज़ार पर हैं, पैर भी सब कतार में हैं, पर पता नहीं सब कतारें कट आफ़ क्यों हो जाती हैं!