Sunday, July 11, 2010

ब्लैकहोल






ब्लैकहोल

जब भी सोचती हूँ ,

कि कुछ लिखूँ-तुम्हारे बारे में ,

तो शब्द ही नहीं मिलते।

भला इतनी विरक्ति-

क्या शब्द थाम पायेंगे !

तब भी जब बैठती हूँ –

तो याद ही नहीं रहती।

क्या लिखूँ?

दिल,दिमाग सब पर शून्य!

तुम्हारे लिए कैसी कंगाली है?

न शब्द

न भावना

न याद

यहाँ तक कि शिकायत भी नहीं !

हम क्या कहें !






हम क्या कहें !
तुम तो हमें सिरे से ही नकार जाते हो।
एक बार नहीं ,हजार बार –
हम तुम्हारी कठोर दहलीज रक्तस्नात कर जाते हैं ।
क्या तुम जानते हो?
हम से तुम्हारि दहलीज तक के रास्ते-
तुम्हारे चाबुक से उधडी,
हमारी लाशों से भरे पडे हैं ।
और जब तुम-
हम अर्धमृत लाशों पर,
अपने रथ पे सवार –
सैर को निकलते हो,
तुम्हारे रथ के पहिए
हमारे खून से ही चमकते हैं ।
और तुम कहते हो,
कि हम अब भी कुछ कहें ।बस कहें ! बस कहें ही!
ज़ुदा रास्ते

मेरी बातें तुम्हारी जैसी नहीं ,
ना सरल,न सीधी,
ये सपाट हैं ।
ना इसमें समुद्र की गहराई है,
ना पर्वतों सी
ऊँचाई ।
यह समुद्र पर फैली-
तेल की धार है।
मुझे विष-अमृत का,
घोल बनाना नहीं आता।
मैं उसे वैसे ही पेश करती हूँ –अल्हदा।
नहीं जानती शब्दों के जाल में –
अर्थ को घुसाते,छिपाते- तुमने की ईमानदारी
या अप्रिय सत्य का ज़खीरा पटकते-मैंने।
मुझे बस इतना पता है-चाहना एक ही है।
बस तुम जरा हाथ को घूमाकर नाक पकड्ते हो-
मैं सीधे गर्दन।


अग्निशिखा

मैं जड़ हूँ –

सौंदर्य ,गंध से हीन।

मैं तुम्हारी इच्छा पुष्प नहीं ,

ना जूही की कली।

मैं तुम्हारे ह्र्दय पर थिरकती मुस्कान हूँ ।

मैं तुम्हारे रस-स्वप्न की-

स्वर्ण मूर्ति का आलिंगन नही ।

मैं तुम्हारी रगों में –बहता ज्वाल हूँ ।

मैं तुम्हारी तृषा को पूर्ण करती राह नही –

खींच ले जाये जो अगम को –मैं वो चित्कार हूँ ।

मैं तुम्हारे गात को शीतल करती पय-धार नहीं ,

श्रुति मात्र से जल उठो- मैं वो भ्रष्ट राग हूँ ।

मैं जड़ हूँ –

सौंदर्य ,गंध से हीन।

मैं तुम्हारी इच्छा पुष्प नहीं ,

ना जूही की कली।

मैं तुम्हारे विश्वाश पर चोट करती-क्रांति उदगार हूँ ।