Wednesday, July 28, 2010

मेरी दुनिया


मैंने वहीं बनाई थी अपनी दुनिया।
छिपते-छिपाते
बचते-बचाते,
रोज़-रोज़ जाती थी।
हवा से कभी सिहरती,
तो कभी कलेजा थाम बैठ जाती थी।
पर जाती ज़रूर थी।
वहीं-
जहाँ न जाने,मैंने कितनी मु्सीबतों से
बचाये थे-अनमोल बेशकीमती खजाने।
मैं चूहे जैसी-
बिल में रखे अनाज के ढेर के बल पर-
बाहर फुदकती रहती।
कुतरती रहती-जडें।
(इनकी जकडन में फँसी मेरी साँसें,
मुझे कभी रास नहीं आई)
ढूढती थी रास्ता हर तरफ़
हर तरफ़ थीं जडें-
अनगिनत-पीपल, वटवृक्ष की।
बंद कर दिये गये थे-
हर मोड़,नुक्कड़,गली,चौराहे,
जहाँ से गुजर सकती थीं –
मेरी कल्पनायें।
पर ये रोके कब रूकी हैं !
फूट पड़ीं गंगा सी,
असंख्य जलधार में बँटती,
ढूंढ ली है राह—वहाँ की,
जहाँ ,
मैंने छुपा रखे हैं-
हँसते हुये वो क्षण सभी।

राख में दबे शोलों की सरगोशी,

ज्वालामुखी से निकले लपटों से भी तेज़ है।

मैं उनमें कंडे डाल कर-

सेंकती हूँ ह्रदय और आत्मा।

सेंकती हूँ रोटियाँ –जली-जली।

दबी बातें,

सिर्फ विस्फोट ही करती हैं ।

चिनगारी चाहे लाख दबी हो,

किसी चूल्हे की आग नहीं बनती।