Sunday, July 11, 2010

ज़ुदा रास्ते

मेरी बातें तुम्हारी जैसी नहीं ,
ना सरल,न सीधी,
ये सपाट हैं ।
ना इसमें समुद्र की गहराई है,
ना पर्वतों सी
ऊँचाई ।
यह समुद्र पर फैली-
तेल की धार है।
मुझे विष-अमृत का,
घोल बनाना नहीं आता।
मैं उसे वैसे ही पेश करती हूँ –अल्हदा।
नहीं जानती शब्दों के जाल में –
अर्थ को घुसाते,छिपाते- तुमने की ईमानदारी
या अप्रिय सत्य का ज़खीरा पटकते-मैंने।
मुझे बस इतना पता है-चाहना एक ही है।
बस तुम जरा हाथ को घूमाकर नाक पकड्ते हो-
मैं सीधे गर्दन।

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