Friday, August 27, 2010

ब्लॉग पर मार्क्सवाद

पता नहीं लोग ब्लॉगिंग क्यों करते हैं? किसी ब्लॉगर से कारण पूछें तो एक कहेगा- ‘अंतर्वैयक्तिक भाव-संप्रेषण व विचार संचार’ ,दूसरा कहेगा-‘पर्सनल एक्सप्रेशन और आपसी कम्यूनिकेशन’, तीसरा कहेगा-‘फ़ालतू है पर मज़ा आता है‘। चौथे के लिए यह ‘महज़ एक डायरी’ है तो पाँचवें के लिए ‘अपनी विद्वता की धाक जमाने की प्लानिंग’। मुझे इतनी भारी भरकम बातें तो आती नहीं, पर है यह प्रेशर कुकर की सीटी से निकलते गैस के गुबार जैसी चीज; ज्यादा से ज्यादा बैठे ठाले की बेलौस बकवास।
खैर! बातें कम काम ज्यादा। बात ऐसी है की विश्वस्त सूत्रों से मिली नई खबर के अनुसार दिल्ली विश्वविद्यालय के मार्क्सवादी छात्र ब्लॉगिंग कर रहे है। ना जी, चौंकिएगा मत; थोड़ी सी गलतफ़हमी हुई तो जेएनयू के छात्रों को बेरोजगारी का डर हो जाएगा और कही ज्यादा गलतफ़हमी हो गई तो चिदम्बरम साहब दिल्ली विश्वविद्यालय में ग्रीन हंट भी चलवा सकते हैं। नई खबर वाले मार्क्सवादी जरा अलग किसिम के हैं।
कहा होगा कभी मार्क्स ने कि सता बंदूक की नाल से निकलती है; हमें तो यह पता है कि यह चचा मार्क्स कहाँ से निकलते हैं। तो बन्धु! कलेजा थाम के बैठिए, क्योंकि इस साल का विज्ञान का नोबल पुरस्कार दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को ही मिलने वाला है। उनकी खोज यह है कि मार्क्स ब्लॉग से पैदा होते हैं।
खुलासा यह कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के छात्र ब्लॉग से मार्क्स पैदा करने की जीतोड़ कोशिश में जुटे है। (यह ब्लॉग भी इसी का नतीजा है)
वो वाले मार्क्स आम आदमी की तरह पैदा हुए, आम आदमी की तरह जीए, और बिना एक भी मार्क्स लिए मोटी-मोटी पोथियाँ लिख कर आम आदमी की तरह ही मर गए। नए मार्क्सवादी जरा दूजे किस्म के हैं। खास नोट्स जुटाते है, खास प्रोफ़ेसरों से पहचान बढ़ाते है, या फ़िर कभी कभी (मेरी तरह) खास बकवास करते हैं – सब मार्क्स के लिए।
बात मज़े की है तो मज़ा जारी रहे, आपका ही सही। मेरे मज़े की बात तो यह है कि जबरदस्ती का रसगुल्ला भी मज़ा नहीं देता। बड़े –बड़े बक्की और झक्की देखे हैं हमने, पर काल सेंटर की एक शिफ़्ट की के बाद तो बस मौनी अमावस ही बाकी रहती है। बड़ी हैरत की बात है कि जो लोग रोजाना ब्लॉगिंग करते हैं, वो पूरे दिन और क्या करते हैं। इतनी भड़ास, इतनी छपास और इतनी बकवास का मसाला कहाँ से जुटाते हैं लोग।
बड़ा प्रेशर है, जी! नेताओं को पेमेंट का प्रेशर है; किसान को मानसून का प्रेशर है; कलमाड़ी को कामनवेल्थ का, तो अमेरिका को हेडली का प्रेशर है; बच्चों पर बस्ते का प्रेशर और किस्सा कोताह यह कि मुझ पर भी मार्क्स का प्रेशर है, पर जनाब! आपको किस बात का प्रेशर है?
रोजे इम्तिहाँ हमको कई नम्बर बनाने हैं,
तुम्हारी नींद क्यूँ रुसवा, तुम्हारे क्या फ़साने हैं!

4 comments:

  1. ब्लोगिंग के बहाने जो आपने कटाक्ष किये है बेहद मनोरंजक और सराहनीय है. बहुत ही रचनात्मकता और नयापन है इस लेख में...मुबारक हो.!!

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  2. बहुत अच्छा .......मनोरंजक के साथ ही हमे सिख भी मिल रही है .......बेहतरीन प्रस्तुति ......इसे जारी रखे ..........

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  3. जिस वाद को खुद मार्क्स भी झुठला गए उसमे अपने आप को उलझा कर रखना जरूरी नहीं है. वैसे बीच बाज़ार में आकर अच्छा लगा.

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  4. मार्क्सवाद , दरअसल मार्क्सवाद है क्या ? ये जानना नितांत आवश्यक है ये जानने के लिय की "ब्लॉग पर मार्क्सवाद" क्या है ? मार्क्स तो अपनी पोथी लिख कर चले गये लेकिन झंझट में डाल गये उनको जो मार्क्सवादी इस लिए बनते हैं की मार्क्सवादी बनना एक अजीब सी लेकिन बौद्धिक होने का एहसास देने वाली चेतना है| और यह आज कल फैसन भी हो रहा है की यदि आप अपने छात्र जीवन में मार्क्सवादी ना बने तो क्या बने ? क्योंकि इसी जीवन में कुछ वो दौर आते हैं जब अपने आप को सर्वहारा वर्ग में रखने को मजबूर हो जाते हैं | लेकिन अंतत दौड वही बुर्जुआ वर्ग के लिए ही है | यह मार्क्स वाद का फलसफा है जो आज कल चारों ओर नवयुवाओं के चेहरे से कम्बल की भांति चिपका हुआ है| कि कहीं वह इस ढाढी नुमा कम्बल के पीछे से कुछ वो सफाचट मार्ग दिख जाये जो राह चमकती हुई क्लीन सेव की तरह पूंजीवाद कि गलियों में उतर जाये | और कुछ ऐसी भी पहचान बनी रहे कि यह बहुत बड़े ना सही पर हैं तो मार्क्सवादी ही | जय हो इस " ब्लॉग पर मार्क्सवाद " की !!!

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