Thursday, August 26, 2010

रुचिका के बहाने

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रुचिका गिर्होत्रा आज सुर्खियों मे है । वह आज खबर मे है - आत्महत्या करने के उन्नीस सालों के बाद, क्योंकि उसे आत्महत्या के लिये मजबूर करने वाले को मात्र छ: महीने की सजा और 1000 रु जुर्माना हुआ है। क्या हम इस समय के साक्षी हैं, जब स्वतत्र भारत में स्त्रियों की अपमानजनक ह्त्याएँ सत्ताधारी वर्ग के शौक का सामान भर हैं!
चौदह वर्ष की रुचिका जो स्टेफी ग्राफ को खेलते देखकर, उसकी तरह टेनिस की खिलाङी बनना चाहती थी,बिल्कुल आम लङकियों की ही तरह थी।पर उसकी यह आम लङकियों वाली जिंदगी उसी दिन खत्म हो गयी जब हरियाणा के भूतपूर्व डीजीपी एस पी एस राठौर ने उसे अपने चैंबर मे बुलाया। यह कहानी किसी छेङछाङ को मुद्दा बनाने की कहानी नहीं है। यह कहानी है उस व्यवस्था की जो भक्षक बने जनता के सेवकों को शेर बनाती है और उसे मासूमों का शिकार करने की तालीम देती है। यह कहानी है उस कारण की जिसने एक अरब की जनसख्या वाले देश को महिला खिलाड़ियों की परेशानी बना दिया है। यह एक डर पैदा करने वाली कहानी है, जो बताती है कि कल्पन चावला, पी टी उषा या कर्णम मल्लेश्वरी बनने की राह में तकतवर अफ़सरों की हवस से भरी आँखे भी है। यह उस बाधा दौड़ की कहानी है जो हर लड़की को हर हाल में दौड़ना ही है।
रुचिका एक कमजोर लड़की का नाम नहीं है, यह नाम उस बेटी का है जिसने एक बददिमाग अफ़सर के जुल्म और उसका साथ देती व्यवस्था में छीजती जा रही जिंदगी को अलविदा कहना बेहतर समझा। 12 अगस्त 1990 के दिन हुइ इस घटना के बाद के अंतहीन जुल्मों से रुचिका अवसादग्रस्त होकर अपने कमरे में ही बंद रहने लगी और आखिरकार तीन सालों बाद उसका यह संघ्रष भी उसकी आत्महत्या के साथ खत्म हो गया। आज हमारी कानूनी व्यवस्था उसके भय को सही साबित करती है। उसका यह सोचना सच लगता है कि एक डी जी पी कानून को भी जेब में लेकर घूम सकता है और स्त्री के प्रति न्याय अभी भी भारतीय लोकतंत्र में विश्वास के योग्य नहीं है।
हम इस तरह सोचने के लिए स्वतंत्र हैं कि रुचिका के साथ हुई उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद अगर ठीक समय पर राठौर पर जरुरी कार्रवाई की जाती तो शायद आज वह हमारे बीच होती। आज हम फिर दोष देती उसी ऊंगली को देखते हैं जो एक-एक कर सारी व्यवस्था पर इशारा करती है और अंतिम दोषी के रुप में बस एक बड़ा सा शून्य बच जाता है।
आज 19 वर्षों के बाद मिला न्याय रुचिका के संघर्ष को भी बेमानी करता है। अदालत के बाहर अपनी पत्नी और विजयी मुस्कान के साथ दिखता राठौर तमाम अखबारों के मुखपृष्ठ पर चस्पां तमाचा है जो समाज और कानून के मुंह पर पूरी आवाज के साथ पड़ा है।रुचिका की मौत का जिम्मेदार एक शख्स को ठहराना गलत ही होगा। अकेला व्यक्ति इतना शक्तिशाली नहीं होता, क्रूर जरुर हो सकता है। रुचिका के भाई आशु गिरहोत्रा को ठीक 12अगस्त 1992 को झूठे केस मे फंसाना और उसके बाद आँटो चोरी के और 5 केस अकेले राठौर की कारस्तानी नहीं हो सकते।
जनतादल सरकार के हुकुमसिंह,कांग्रेस के भजनलाल,हरियाणा विकास पार्टी के बंसीलाल,जो समय-समय पर हरियाणा की सता की बागडोर संभाले रहे,रुचिका की प्रतीक्षा का जवाब देने में असमर्थ रहे।
नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो के अनुसार हर घंटे भारत में लगभग 18 औरतें उत्पीङन का शिकार हो रही है।यह रिपोर्ट 2006 की है।एन सी आर बी के अनुसार यह संख्या हर दिन बढ रही है।2006 की रिपोर्ट यह भी बताती है कि उत्पीङित लङकियों मे लगभग 26% अठारह वर्ष से भी कम उम्र की हैं,और इनमें से 617 की उम्र 10 वर्ष से भी कम है। यह संख्या चौंकाने के लिए भले ही काफी है पर सता की खुमारी उतारने के लिये नाकाफी है। इस तरह की हर घटना के बाद स्त्री सुरक्षा से सबंधित बने कानून,आपराधिक रिकार्ड और रिपोर्ट भी चर्चा में रहते हैं और उसी खबर की तरह बासी होकर कूङे में डाल दिये जाते हैं।
रुचिका आज खबर में है।राठौर को मिली सजा भी चर्चा में है।इसका चर्चा में होना जहाँ फायदेमंद है वहीं नुकसानदेह भी है। फायदेमंद है क्योंकि मीडिया कङे कदम उठाने पर मजबूर करने में सक्षम है जिसके कारण गाहे-बगाहे न्याय मिलने की घटनाऐं भी हो जाती हैं। और दूसरी तरफ 6 महीने की सजा का मिलना उस मानसिकता को बढावा देता है जो रुचिका जैसी लङकियों की इज्जत को अपनी थाती समझता है।19साल के संघर्ष और इंतजार के बाद सजा का मिलना और वह भी 6 महिने की-उन शोषितों की संघर्षशक्ति को कमजोर करता है जो न्याय कि उम्मीद में आज भी संघर्षरत हैं।
राठौर को मिली सजा आम जनता को यही सदेश देती दिखाई देती है कि वो इस तरह के मामले खुद ही निपटा ले क्योंकि न्यायालय को 19 साल सिर्फ इस निष्कर्ष तक पहुँचने मे लगते हैं कि छेङछाङ हुई है वो भी तब जब मामले की जाँच सी बी आइ जैसी एजेंसी कर रही है। फैसला सुनकर तो यही लगता है कि किसी भी जज की बेटी नहीं होती,किसी वकील की बेटी नहीं होती,गर होती भी है तो रुचिका नहीं होती। यह एक भयावह कल्पना है जो लोकतत्र के हित में नही की जानी चाहिए।

6 comments:

  1. यह सिर्फ देर ही नही अंधेर भी है ।

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  2. SPS rathaur is now want to seek court's permission and want to do 'Harvesting'. ha ha

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  3. देर ही नही अंधेर भी है ।

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति. आपके ब्लाग पर आकर अच्छा लगा.. चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है... हिंदी ब्लागिंग को आप नई ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है....
    इंटरनेट के जरिए अतिरिक्त आमदनी के लिए यहां पधारें - http://gharkibaaten.blogspot.com

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  5. निंदनीय - प्रेरक आलेख

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  6. आज चारों ओर जुल्म की आंधी तूफानी वेग के साथ चल रही है यह कोई पहली और मैं समझता हूँ अंतिम घटना नहीं होगी इस अंधड़ में, क्योंकि ये सत्ता के मदमस्त शेर छुट्टा शांड की तरह चारों ओर फैले हुए है शायद आप को याद ना हो एक ऐसा ही केस जिसका आरोपी धनञ्जय था जिसे फांसी की सजा डी गई थी तब यह बहस बहुत जोर दार तरीके से चली थी की आखिर सब के हक में न्याय क्यों नहीं और ऐसे दरिंदों का न्याय क्या होना चाहिए? यह कहीं ना कहीं पूरी न्याय व्यस्था पर और हमारे समाज के अंदर की सडन को दिखाते हैं कि जिसे आप रक्षक समझ रहे हैं वह कभी भी आपके लिए बक्षक का रूप धारण कर सकते हैं और पैसा रुतबा के दम पर उनका खेल खेल ही रहता है| क्या उसे फांसी नहीं मिलनी चाहिए जिसने रुचिका को आत्महत्या की चौखट तक पहुचाया? ऐसे ना जाने कितने अनगिनत केस हो चुके हैं लेकिन सरकार और चुने हुए सत्ताधीशों के पास अब तक इन मुद्दों पर बात करने और इन्हें हल करने का कोई उपाय नहीं है ? हाँ , बहसें जरुर होती है लेकिन किन पर, जो आम जन के जुडाव से दूर दूर होती है ? जिसकी बेटी मरी जिसकी बहन मरी उसका दर्द बुझने वाला जानने वाला शायद ही कोई हो ?

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