Thursday, August 26, 2010

सुरक्षित नहीं है सीता



महज तीन-चार माह पहले पटना की व्यस्ततम सडकों में से एक अशोक राजपथ में डाक्टरी सहायता और पटना मेडिकल कालेज के खिलाफ़ शिकायतों की पर्ची लिये कुछ अनपढ देहाति एक औरत का पता पूछ रहे थे। उनकी समझ में वो सारी समस्यायें जो गरीबी और पैरवीरहित होने के कारण उन्हें घेरे हुए है,इस औरत से मिलकर खत्म की जा सकती हैं। हालांकि उस औरत का नाम इंदिरा नुई, सोनिया गांधी और नीता अंबानी जैसी आत्मघोषित मध्यवर्गीय शक्तिशाली महिलाओं में नहीं है,और उसमें इस तथ्य के अलावा और कोई खासियत नहीं है कि वह बिहार के उपमुख्यमंत्री की अनंत बहनों (याद कीजिए स्कूल के दिनों की प्रतिज्ञा कि समस्त भारतीय मेरे भाई-बहन हैं)में से एक हैं जिनके रक्तसंबंध कुछ अधिकारियों पर असर डालने में समर्थ हैं। पर कुछ दिनों पहले जब टी,वी, के हर चैनल पर वो आईं तो स्त्रियों के लिये चिंतन के कई आयाम छोड गईं।

साहित्य और समाज उन स्त्रियों के लिये चिंतित है जो हाशिये पर खडी अपराध ,उपेक्षा और दोमुंहेपन की शिकार होती हैं। सरकार की कई योजनायें इस बात पर केंद्रित हैं कि शक्तिहीन महिलाओं के जीवन का अंधकार कैसे दूर किया जाये। चारों ओर से महिला सशक्तिकरण का नाश बडे जोरों से उभर कर सामने आता है। पर सशक्तिकरण के सभी उपायों को यदि वास्तविकता की कसौटी पर परखा जाये तो दुनिया हमें बदलती सी नज़र आती है। करोड़ो बार ही यह चिल्लाने से और अरबों रुपयों के पोस्टरों से पूरे देश को पाट देने के बाद भी समाज सुरक्षित नहीं बन सकेगा क्योंकि कोई भी सुरक्षित समाज यदि महिलाओं के लिए सुरक्षित होगा तो निश्चित ही वह पुरुषों के लिए भी सुरक्षित होगा, और स्त्री सुरक्षा के लिए अपराधमुक्त समाज की ही अभिकल्पना करनी होगी। राजनीति का अपराधीकरण स्वीकृत तथ्य है परन्तु क्या मजे की बात है कि किसी भी राजनैतिक परिवार में कोई महिला घरेलू हिंसा, दहेज हत्या का शिकार नहीं हो रही है! कुछ तो बात है कि अर्थशास्त्र के पैमाने और समाज द्वारा स्वीकृत विकास के दूसरे मापदंडों पर पूरी तरह खरी उतरने वाली औरत भी शोषण के सामने उतनी ही बेबस और निरुपाय है।


शिक्षा, आर्थिक स्तर, स्वालंबन और कई मानकों के बाबजूद देश की राजधानी में महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या काबिलेगौर है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2006 में दिल्ली का अपराध दर राष्ट्रीय औसत के दुगुनी से भी ज्याद(357*2) है; लिंग अनुपात 821 है जो राष्ट्रीय औसत से 112 अंक कम है; अदालतों मे पारिवारिक मुकदमों और बाजार में जासूसी एजेंसियों की भरमार है। 6 वर्ष की मासूम बच्ची से 78 वर्ष की व्र्र्द्धा तक के बलात्कार की घटनायें हैं, और शायद हर इंसान को पता है कि लिंग जांच और गर्भपात का नजदीकी केंद्र कहां है। वास्तविकता को अगर आंकड़ों से तौलें तो हम यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि शिक्षा और विकास स्त्रियों की स्थिति में बदलाव लाने वाले कारक नहीं हैं क्योंकि इसके अलवा अगर कोई भी निष्कर्ष निकाला जाये तो वह यही हो सकता है कि इनका असर नकारात्मक है। विकसित राज्यों का लिंग अनुपात चिंताजनक है। महिलाओं के प्रति अपराध भी यही कहानी बयां करते हैं।


स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के द्वारा चलाया जा रहा “सेव द गर्ल चाइल्ड” कैम्पेन और “पी एन डी टी एक्ट” का कार्यान्वयन उसकी योजनाओं की रुपरेखा और कार्यशैली के चलते कमोबेश अर्थहीन है। कोख में लड़कियों को बचाने की जो मुहिम विज्ञापनों के पन्ने रंग कर चलाई जा रही है, वह कितनी प्रभावकारी होगी! सामाजिक स्थितियों की वास्तविकता बदले बगैर हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि किसी लड़की को इस दुनिया में स्वेच्छा से जन्म लेने दिया जायेगा?
जिस देश में हर घंटे 18 महिलायें बलात्कार की शिकार होती हैं,बालश्रम,वेश्याव्रिति कई रुपों में नासूर बन चुकी है और जहाँ कानून परिवार का उच्छेद तो कर सकते हैं पर समाज को अनुशासित नहीं कर सकते, जहाँ अश्लीलता के विरुद्ध तमाम कानूनों के होते हुए भी मीडिया अपने तमाम संसाधनों से स्त्री को वस्तु बनाता निकलता जा रहा है, 32000 कत्ल 19000 बलात्कार 7500 दहेजहत्या 36500 यौन उत्पीड़न जहाँ एक साल के आँकड़े बन जाते है, मानवाधिकारों का उल्लंघन जहाँ इस साधारणता से होता है कि हिरासत में मौतें और थानों मे बलात्कार गिनती में नहीं आते, वहाँ एक स्त्री का जीवन जीना और अधिकार तथा अस्मिता की बात करना परस्पर विरोधाभासी हैं।

राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं की भागीदारी की बाबत 2001 की विश्व बंक की एक रिपोर्ट पर जैक्वस चार्म्स का अध्ययन भारत को ट्यूनीशिया के साथ खड़ा करता है, यह और तमाम बातें हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हम महिला अधिकारिता पर बहस के अलावा कौन सा मार्ग अपनाएँ! यदि हम शिक्षा और विकास के जरिए भी स्त्री के लिए सुरक्षित समाज की रचना नहीं कर सके तो हमारी आशाएँ किस खूँटी पर टँगेगीं?

क्या वह समय आ गया है कि जब हमें आगे बढ़कर स्त्रीअस्मिता को सामाजिक पुनर्संरचना और सार्वभौमिक न्याय के बड़े मुद्दों से जोड़ना होगा, या फ़िर हमें अभी भी हर सीता को यही बताना होगा कि कोख से बाहर की दुनिया तो अन्याय, अपमान और अपराध से भरी है ही, उसकी माँ की कोख में भी उसे जबरदस्ती ही जीना होगा और यह कि वो अपनी ही बनाई दुनिया में कतई सुरक्षित नहीं है।



No comments:

Post a Comment